Saturday, 30 July 2016

बहादुर शाह जफर - लगता नहीं

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में

बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला
किस्मत में कैद थी लिखी फ़स्ले बहार में

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में

इक शाख़-ए-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लालाज़ार में

उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में

दिन ज़िंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई फैला के पाँव सोयेंगे कुंजे मज़ार में

कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

बहादुर शाह ज़फर

No comments:

Post a Comment

ત્યારે તને યાદ કરી છે @રમેશ મારું

ત્યારે મેં તને બહુ યાદ કરી છે..... ક્યારેક આથમતી એવી સાંજ  ઢળી છે ને, ત્યારે મેં તને બહુ યાદ કરી છે,  રતુમડી ઘેરી એવી સાંજ  ઢળી છે ને,  ત્યા...